राजस्थान का इतिहास
राजस्थान का इतिहास प्रगेतिहसिक काल स शुरू
होता है | 3000 ई. पू. से 1000 ई. पू. के बीच यहाँ की संस्कृति सिन्धु सभ्यता जैसी
थी | 7 वी सदी से पहले यह चौहान राजपूतो का प्रभुत्व बढ़ने लगा और १२ वी सदी तक
उन्होंने एक साम्राज्य स्थापित कर लिया |
चौहानों की बाद इस योधा जाती का मवाद के गुहिलोतो ने संभाला | मेवाड़ के आलावा अन्य राजपूत राज्य जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहे हैं वे है – मारवाड़, जयपुर, बूंदी, कोटा, भरतपुर और अलवर |
पाषाण काल
पाषण काल (2500000 ई. पू. से 1000 ई. पू.) को तीन युगों में बांटा गया
है |
पूरा /पूर्व (Paleo), मध्य (Meso), नव (Neo)
राजस्थान में तीनो युगों के साक्ष्य मिले है |
पुरापाषाण युग (Paleolithic
age)
आखेटक व खाद्य
संग्राहक : राजस्थान में
पुरापाषाण युग के अवशेष अजमेर, अलवर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, जयपुर, जालौर, पाली, टोंक आदि क्षेत्रों की नदियों के किनारे प्राप्त हुए
हैं। इन नदियों में चम्बल, बनास व लूनी प्रमुख
हैं। पुरापाषाणयुगीन प्राकृतिक गुफाएं व शिलाकुटीर विराटनगर के निकट पाये गये हैं।
भरतपुर जिले के दर नामक स्थान से कुछ शिलाकुटीरों में व्याघ्र, बारहसिंघा तथा कुछ मानव आकृतियों के चित्रांकन मिले
हैं।
प्रमुख पुरातात्विक स्थल: बेड़च, बागन व कदमाली नदी घाटी (चित्तौड़); डीडवाना, पुष्कर आदि ।
मध्यपाषाण युग (Mesolithic Age)
(आखेटक व पशुपालक/सूक्ष्मपाषाणोपकरण (microlith) संस्कृति): राजस्थान में
मध्यपाषाण युग के अवशेष अजमेर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, टोंक, पाली, भीलवाड़ा आदि से प्राप्त हुए हैं।
बागौर (भीलवाड़ा जिला) पशुपालन का प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करता है जिसका समय
लगभग 5,000 ई. पू. है। बागौर से प्राप्त अवशेषों में सूक्ष्मपाषाणोपकरण (microlith) एवं मानव कंकाल प्रमुख
हैं।
प्रमुख पुरातात्विक
स्थल : बागौर (भीलवाड़ा जिला), उम्मेदनगर (ओसिया), बिलाड़ा (जोधपुर), रेड़ (जयपुर) आदि ।
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नवपाषाण युग (Neolithic Age)
(खाद्य उत्पादक): नवपाषाणयुगीन उपकरणों
की प्राप्ति पश्चिमी राजस्थान में लूनी नदी घाटी एवं दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में
चित्तौड़ जिले में बेडच, बागन व कदमाली नदियों की घाटियों से प्रचुर मात्रा में हुई हैं। बागीर
(भीलवाड़ा) एवं तिलवाड़ा (बाड़मेर) से नवपाषाणयुगीन तकनीकी उन्नति पर अच्छा प्रकाश
पड़ता है। इसके अलावे अजमेर, नागौर, सीकर, झुंझुनू, जयपुर, कोटा, टोंक आदि से नवपाषाणयुगीन अवशेष मिले हैं।
प्रमुख पुरातात्विक
स्थल: बागौर (भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के किनारे स्थित), तिलवाड़ा (बाड़मेर) आदि ।
ताम्र पाषाण काल
ताम्र पाषाण (Chalco-lithic) काल का अर्थ है वह काल जिसमें ताम्र (तांबे) के साथ-साथ पाषाण (पत्थर) के उपकरणों का उपयोग हुआ। राजस्थान मे ताम्र-पाषाणकालीन संस्कृतियों का विस्तार गंगानगर, नागौर, जालौर, बाड़मेर, उदयपुर, भीलवाड़ा, चित्तौड़, सीकर, दौसा आदि जिलों में था। राजस्थान में पायी जाने वाली दो वृहद् समूह की संस्कृतियों के नाम हैं- कालीबंगा संस्कृति (सरस्वती दृषद्वती संस्कृति) व आहड़ संस्कृति ( बनास संस्कृति) ।
कालीबंगा संस्कृति (सरस्वती-दृषद्वती/घग्घर संस्कृति)
परिचय : कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ है-
काले रंग की चूड़ियाँ। यह स्थल गंगानगर के निकट सरस्वती दृषद्वती (घग्घर) नदियों
के तट पर बसा हुआ था। सबसे पहले इस स्थल की खोज अमलानंद घोष ने 1951 ई. की। इसके
बाद 1961 से 1969 तक उत्खनन कार्य ब्रज वासी (बी. वी.) लाल, बाल कृष्ण (बी. के.)
थापर आदि के निर्देशन हुआ।
पुरातात्विक अवशेष :
यहाँ से प्राक-हड़प्पा एवं हड़प्पा युगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
प्राक्-हड़प्पा युगीन
यहाँ से जो कूंड/हलरेखा (जुते हुए खेत) के अवशेष मिले हैं वह प्राक् हड़प्पा /
हड़प्पा-पूर्व युगीन है। इससे प्राक् हड़प्पा युग में कृषि के प्रसार का संकेत
मिलता है। यह कालीबंगा क्षेत्र के उत्खनन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी
जाती है।
हड़प्पा युगीन : कालीबंगा से प्राप्त हड़प्पा
सभ्यता के अवशेषों में उल्लेखनीय हैं : चूड़ियाँ (शंख, कांच व मिट्टी की बनी), अग्नि हवन कुंड, खाना पकाने का तंदूर, कच्ची ईंटों से निर्मित घर (केवल एक फर्श में अलंकृत
ईंटों का प्रयोग), धान्य कोठार, जौ के अवशेष, वृषभ की ताम्र मूर्ति, कांसे का दर्पण, खिलौना गाड़ी के पहिए, गोमूत्रिका लिपि (Boustrophendon Script) खुदे बर्तन, एक मुहर पर व्याघ्र का अंकन (जबकि सिंधु क्षेत्र में अब व्याघ्र नहीं मिलते), मेसोपोटामिया (इराक) की एक
बेलनाकार मुहर आदि । कालीबंगा से मेसोपोटामिया (इराक) की मुहर मिलने से यह संकेत
मिलता है कि राजस्थान का व्यापार विदेशी बाजारों से था ।
पतन : सरस्वती-दृषद्वती (घग्घर) के दोआब
में पल्लवित कालीबंगा संस्कृति का पतन धीरे-धीरे इन नदियों के पानी सूखने से हुई।
कालीबंगा के पतन का सर्वप्रमुख कारण- जलवायु परिवर्तन (शुष्कता में बढ़ोतरी) –
अमलानंद घोष; नदियों के मार्ग में परिवर्तन — डेल्स |
आहड़ संस्कृति (बनास संस्कृति)
परिचय : आहड़ उदयपुर के निकट बनास नदी की
घाटी में स्थित था। आहड़ को ताम्रवती/ताम्बवती के नाम से भी जाना जाता था क्योंकि
इसके आस-पास प्रचुर मात्रा में ताम्र/तांबा उपलब्ध था। आहड़ के लिए धूलकोट (धूल का
ढेर), आघाटपुर, आघट दुर्ग आदि नाम भी मिलते हैं। इस स्थल का उत्खनन ए. के. व्यास, एच. डी. सांकलिया आदि
के निर्देशन में हुआ। आहड़ संस्कृति का काल 2100 ई.पू.-1500 ई.पू. माना जाता है।
पुरातात्विक अवशेष
आहड़ संस्कृति के केंद्रों आहड़, गिलूंद गिलँड (सर्वप्रमुख केंद्र), बागौर, पलाडिया आदि से
हड़प्पा-उत्तर संस्कृति के अवशेष मिले हैं। इन स्थलों से प्राप्त अवशेषों में
उल्लेखनीय हैं- ताँबे की कुल्हाड़ियाँ, ताँबे के फलक, ताँबा पिघलाने के काम आनेवाला
चूल्हा, लोहे के औजार, रिंगवेल, बांस के टुकड़े, हड्डियाँ, पत्थर से बनी वस्तुएँ, काले व ला मृदभाण्ड, काँच तथा सीप की
चूड़ियाँ, यूनानी मुद्राएं (एक मुद्रा पर एक तरफ त्रिशूल व दूसरी तरफ यूनानी देवता अपोलो
का अंकन) आदि। यूनानी मुद्राओं की प्राप्ति से इस संस्कृति के वैदेशिक संपर्क का
संकेत मिलता है। आहड़ के उत्खनन में मिले स्तरीकरण से प्रतीत होता है कि यहाँ आठ
बार बस्ती बसी और उजड़ी।
पतन : आहड़ संस्कृति का पतन भूकम्प, बाढ़ या बाह्य आक्रमण
के कारण हुआ।
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